शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

खून-खराबे के पर्याय कम्युनिस्ट

नंदीग्राम से लेकर सिंगुर और नक्सलबाड़ी से लेकर कंधमाल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के चंद्रपुर और केरल में हिंसा का नंगा नाच करने में हमारे कम्युनिस्ट माहिर हैं. कहीं पर वह नक्सलवाद का रूप धर लेता है तो कहीं विनायक सेन या तीस्ता जावेद सेतलवाड या अरुंधती सुजैन राय जैसा मानवाधिकारवादी का चोला पहन लेता है. वह नेतागिरी ही नहीं बल्कि एनजीओ से लेकर मीडिया और साहित्य तक में घुसपैठ कर लेता है.

नेपाल और कश्मीर में वह आजादी की पैरवी करता है लेकिन मिस्र (इजिप्त) में तानाशाहों की बदहाली से इतना डर जाता है कि अपने चीन में फेसबुक और गूगल पर पाबंदी लगा देता है. इस डर से कि कहीं आम जनता इन माध्यमो से जग ना जाए और उसकी तानाशाही को चुनौती न दे डाले. उसे विरोध या विपरीत विचारधारा ज़रा भी सहन नहीं होती. कोई उसकी पोल खोले तो यह उसे फासिस्ट घोषित कर देता है. और यही डर और कुत्सित वृत्ति उसे भयानक और हिंसक भी बनाती है.

यह वक्त के सात अपना रूप बदलता है. कहीं जेहादियों से हाथ मिलाता है तो कहीं धर्मान्तरण को उतारू मिशनरियो का हमजोली बनाता है कम्युनिस्ट. लेकिन इसके मूल में हिंसा ही व्याप्त है. इसलिए जहां भी जाता है नरसंहार उसका औजार होता है. कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती एक कलाकृति यहाँ पेश है. 


3 टिप्‍पणियां:

  1. मैं आपकी सशक्त लेखनी का प्रशंसक हूं। समर्थक में अपना फोटो भी लगा दिया है।परस्पर सहयोग की भावना बहुत अच्छी बात है। अपने ब्लाग दामोदर दर्जी समाज का आईना पर आपकी टिफ्पणी मेरे लिये महत्व की चीज है।

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